About The Book
असंतुलित मात्रा में पोषक तत्वों के प्रयोग के परिणामस्वरूप न केवल फसल उत्पादकता प्रभावित होती है वरन लागत भी बढ़ हो जाती है। किसानों के द्वारा असंतुलित मात्रा में पोषक तत्वों का प्रयोग करने से पर्यावरण पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है. मृदा में अनेक विकार उत्पन्न हो जाने से मृदा स्वास्थ्य में भी गिरावट आती है। प्रस्तुत पुस्तक मृदा स्वास्थ्य एवं पादप पोषण फसल उत्पादन तथा मृदा स्वास्थ्य के महत्व एवं समेकित पाँच पोषण की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए लिपिबद्ध की गई है। इस पुस्तक में लेखकों के द्वारा सरल भाषा में सुबोध एवं सहज शैली में विषय को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
मृदा स्वास्थ्य एवं संतुलित पोषक तत्व प्रबंधन की दृष्टि से इस पुस्तक में मिट्टी के प्रकार अनुसार विभिन्न कृषि पारिस्थितिकी क्षेत्रों में पोषक तत्वों की सामान्य उपलब्धता फसलोत्पादन के लिए आवश्यक मात्रा एवं इनके बीच के अंतर की पूर्ति विभिन्न स्त्रोतों से करने पर महत्व प्रदान किया गया है। पौध पोषण के लिए अनिवार्य तत्वों के कार्य, उनकी कमी के लक्षण पहचानने एवं निदान करने के तरीकों पर जानकारी संकलित की गई है। पोषक तत्वों को पौधों के द्वारा किस रूप में अवशोषित किया जाता है, मृदा में पोषक तत्वों का रूपान्तर किस प्रकार होता है, पोषक तत्व किस रूप में उपलब्ध होते है तथा इनका स्थिरिकरण किस प्रकार से होता जैसे विषयों को भी सम्मिलित किया गया है। संगठन एवं भौतिक रुप के आधार पर अकार्बनिक उर्वरकों के प्रकार उर्वरकों के मिश्रण, उर्वरकों में पाई जाने वाली अशुद्धियों एवं मिलावट का गुणात्मक परीक्षण करने की विधियाँ असतुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग करने से पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव तथा मृदा में उर्वरकों के क्षरण से बचने के उपायों पर विस्तार से जानकारी प्रस्तुत की गई है।
उर्वरक नियंत्रण अधिनियम 1985 में हुए महत्वपूर्ण संशोधनों के साथ-साथ उर्वरकों के समुचित भंडारण एवं परिवहन पर भी जानकारियाँ लिपिबद्ध की गई है। मृदा परीक्षण के आधार पर उर्वरकों के प्रयोग को प्रोत्साहित करने पर विशेष बल देते हुए किसानों को मृदा नमूना संग्रहित करने की उपयुक्त विधि एवं सावधानिया अवगत कराने की चेष्टा की गई है ताकि कृषक प्रतिनिधि नमूने लेकर विश्लेषण हेतु प्रयोशाला भेज सकें। एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन के महत्व को प्रतिपादित करते हुए जैविक खादों यथा-पकी हुई गोबर की खाद, केचुआ खाद, हरी खाद, कम्पोस्ट के प्रयोग पर पर्याप्त सामग्री इस पुस्तक में समाहित की गई है। जैव उर्वरकों का प्रयोग करना समय की मांग है। जैव उर्वरकों के प्रकार प्रयोग में लाई जाने वाली मात्रा एवं प्रयोग करने की उचित विधि तथा समय जैसे विषयों को विस्तार से प्रस्तुत किया गया है। भारतीय कृषि प्रणाली में दलहनी फसलों का महत्व, फसल चक्र अपनाने की आवश्यकता एवं एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन का मृदा स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव जैसे विषयों को समाहित करने का अभिनव प्रयास किया गया है ताकि छात्रों विस्तार कार्यकर्ताओं एवं आदान विक्रेताओं हेतु यह उपयोगी सिद्ध हो सके।
हम आशा करते हैं कि इस पुस्तक के माध्यम से किसानों तक एकीकृत पोषक तत्त्व प्रबंधन की तकनीकियों को पहुंचाने में मदद मिलेगी। किसानों के द्वारा जैविक एवं रासायनिक उर्वरकों को संतुलित एवं समुचित मात्रा में अपनाने से उनकी फसलोत्पादन लागत को घटाने एवं पर्यावरण को संरक्षित एवं संवर्धित करने में मदद मिलेगी।
About Author
डॉ. अनिल कुमार सिंह का जन्म सन् 1971 में हुआ। उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से कृशि रसायन एवं मृदा विज्ञान में स्नात्कोत्तर तथा डॉ. बी आर अम्बेडकर विश्वविद्यालय, आगरा (उ.प्र.) से डॉक्टोरेट की उपाधि प्राप्त की। डॉ. सिंह प्रारम्भ में राजा बलवंत सिंह कॉलेज आगरा में एक अनुसंधान परियोजना में क्षेत्र सहायक रहे तत्पश्चात उन्होंने केन्द्रीय औशधीय एवं सगंध पौधा संस्थान, लखनऊ में जूनियर रिसर्च फेलो के रूप में अल्पअवधि सेवा की सुदूर संवेदन उपयोग केन्द्र उत्तर प्रदेश, लखनऊ में परियोजना वैज्ञानिक के रूप में उन्होंने जून 1994 से जनवरी, 2007 तक 12 वर्ष से अधिक समय तक कार्य किया। वे 27 जनवरी 2007 को जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर में वैज्ञानिक (मृदा विज्ञान और कृषि रसायन) के रूप में पदस्थापित हुए। उन्होंने मृदा विज्ञान, रिमोट सेंसिंग और जीआईएस के क्षेत्र में कई उन्नत प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों में भाग लिया। कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार व संगोष्ठी में भाग लेकर उन्होंने 18 शोध पत्र प्रस्तुत किए। उनकी साख में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित 42 शोध पत्र, प्रतिष्ठित खेती पत्रिकाओं और कृषि समाचार पत्रों में 200 से अधिक लोकप्रिय लेख, 92 प्रसार पत्रक व पैम्फलेट और पांच पुस्तक अध्याय शामिल हैं। वे चार किताबों, 10 तकनीकी बुलेटिन, एक प्रयोगशाला मैनुअल और तीन प्रशिक्षण मैनुअल के लेखक है। इसके अलावा कई शोध और तकनीकी रिपोर्ट, सफलता की कहानियां और केस स्टडीज उनके द्वारा तैयार किए गए हैं। उन्होंने मृदा परीक्षण, मृदा परीक्षण के महत्व, पोषक तत्वों के संतुलित अनुप्रयोग, मृदा स्वास्थ्य और पोषक तत्व प्रबंधन, और फसलों के टिकाऊ उत्पादन और उत्पादकता के लिए एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन पर 25 आकाशवाणी तथा 8 टीवी वार्ताएँ दी हैं। उन्हें विभिन्न सोसाइटियों द्वारा कई प्रतिष्ठित अवार्ड प्रदान किये गये हैं।
डॉ. पद्मनाभि त्रिपाठी का जन्म का 1971 में हुआ था।उन्होंने जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर से मृदा विज्ञान एवं कृषि रसायन में स्नात्कोत्तर तथा महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय चित्रकूट सतना म.प्र. से मृदा विज्ञान में डॉक्टोरेट की उपाधि प्राप्त की। डॉ. त्रिपाठी कृषि महाविद्यालय रीवा में स्थित शुष्क खेती अनुसंधान परियोजना (भूमि उपयोग योजना) में सीनियर रिसर्च फैलो के रूप में वर्ष 2000 से 2004 कार्यरत रहे। वर्ष 2005 से लेकर 2007 तक कृषि महाविद्यालय सीहोर स्थित मौसम विज्ञान परियोजना में तकनीकी अधिकारी के रूप में कार्य किया। 30 मई 2007 को जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर अंतर्गत कृषि विज्ञान केन्द्र, हरदा में वैज्ञानिक (मृदा विज्ञान एवं कृषि रसायन) के रूप में पदस्थापित हुए।
राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित कार्यशाला एवं सेमीनार में 10 अनुसंधान पत्र प्रस्तुतिकरण किया विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में 23 शोध पत्र प्रकापित का हुए हैं। कृषि की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में विभिन्न विषयों पर जैसे मृदा परीक्षण आधारित समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन कपास की फसल में सूक्ष्म पोशक तत्व प्रबंधन, मृदा विज्ञान ही स्वस्थ्य जीवन का आधार मृदा एवं सिंचाई जल परीक्षण का फसल उत्पादन में महत्व आदि विषयों पर 130 लेख प्रकाशित हुए साथ ही आकाशवाणी के माध्यम से 12 बार आकाशवाणी वार्ता एवं 8 टीवी वार्ताएँ दीं। उन्होंने मृदा परीक्षण आधारित उर्वरकों की संस्तुति तथा मृदा वर्गीकरण एवं मृदा परिच्छेदिका परीक्षण निर्देशिका पर प्रक्षेत्र मैनुअल तैयार किया। इनके द्वारा कृषि क्षेत्र में कार्य करने वाले एवं नवाचार अपनाने वाले कृषकों की सफलता की कहानी तैयार किये गये हैं। कृषि क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के लिए जिलाधीश द्वारा 4 बार प्रशस्ति पत्र से सम्मान किया गया।
डॉ. बीरेन्द्र स्वरूप द्विवेदी का जन्म जुलाई 1975 में उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में हुआ था। इन्होंने वर्ष 1995 में बी. एस. सी. (कृषि) की उपाधि अर्जित की। इसके पश्चात् मृदा विज्ञान में एम. एस.सी. एवं पी.एच.डी. (डाक्टरेट) की उपाधि क्रमशः वर्ष 1999 और 2008 में प्राप्त किया। डॉ. द्विवेदी ने सन् 2010 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (कृषि वैज्ञानिक चयन मंडल) द्वारा आयोजित राष्ट्रीय योग्यता परीक्षा (नेट) मृदा विज्ञान विषय में उत्तीर्ण की। इन्होंने वर्ष 2007 में कार्यक्रम सहायक के पद पर जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर के कृषि विज्ञान केन्द्र, रीवा (म.प्र.) से सेवा की शुरुआत की। इसके बाद वर्ष 2011 में जवाहर लाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर में सहायक प्राध्यापक (मृदा विज्ञान) के पद पर चयनित हुए । इन्होंने 15 छात्रों को उनके अनुसंधान कार्य हेतु मार्गदर्शन प्रदान किया। डॉ. द्विवेदी ने दो अंर्तराष्ट्रीय एवं 11 राष्ट्रीय अनुसंधान परियोजनाओं में कार्य किया। इन्होंने मृदा विज्ञान, जैव उर्वरक एवं रिमोट सेन्सिंग के क्षेत्र में कई उन्नत प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों में भाग लिया। कई राष्ट्रीय एवं अंर्तराष्ट्रीय सेमीनार व संगोष्ठी में भाग लेकर इन्होने 25 शोध पत्र प्रस्तुत किये। इन्होंने अब तक राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय स्तर की अनुसंधान पत्रिकाओं में 56 शोध पत्र, 4 पुस्तकें, 7 तकनीकी बुलेटिन, एक प्रयोगशाला मैन्युअल, 7 कंपेडियम, 5 पुस्तक अध याय, 130 लोकप्रिय लेख एवं 15 विस्तार साहित्य का लेखन किया है। आपने अनुसंधान के क्षेत्र में डर्बन, जापान एवं नेपाल की विभिन्न वैज्ञानिक स्तर पर यात्रायें की आपको विभिन्न सोसाइटियों द्वारा कई प्रतिष्ठित सम्मानों से पुरुस्कृत किया जा चुका है।
नितिन कुमार सिंघई का जन्म अप्रैल 1969 में जबलपुर में हुआ। संपूर्ण शिक्षा-दीक्षा जबलपुर से ग्रहण करने के बाद सन् 1995 से कृषि विज्ञान केन्द्र प्रणाली में निरंतर कार्य कर रहे हैं। कृषि विज्ञान केन्द्र षहडोल में कार्यरत रहने के दौरान आपके अथक एवं सघन प्रयासों से शहडोल एवं पड़ोसी जिला अनूपपुर में श्री पद्धति से धान उत्पादन न केवल प्रारंभ हुआ वरन् किसानों के बीच यह पद्धति काफी लोकप्रिय हुई जिसके परिणाम स्वरूप इसका क्षैतिज प्रसार 75,000 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल में संभव हो पाया है। इनके द्वारा लिखित तकनीकी पुस्तिका " श्री पद्धति से धान उत्पादन एक प्रयास अनंत संभावनायें लोकप्रिय प्रकाशन है । श्री सिंघई के द्वारा जैव उर्वरकों का व्यापक प्रभावी तकनीकी प्रचार प्रसार करने से इनका प्रयोग किसानों के द्वारा बहुतायत में किया जाता है। कृषि विज्ञान केन्द्र के माध्यम से कृषि तकनीकों को सरल सुबोध एवं रोचक शैली में प्रस्तुत करने के कारण इनकी विशिष्ट पहचान है।