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Shrimd Bhagwat ke Ruchir Sundarb (Hindi)

By: N. Pandey
₹ 896.00 ₹ 995.00

ISBN: 81-7019-541-8,9788170195412
Year: 2016
Binding: Hardbound
Language: Hindi
Total Pages: 180

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प्रस्थान चतुष्टय, श्रीमद् भागवतका कौन संदर्भ अरुचिर है। असुन्दरम कहा नहीं जा सकता, तथापि रुचिर संदर्भ के संचयन का प्रयत्न किया गया है। इस संचयन का आधार गुणत्मक कदापि नहीं हैं, आख्यानों की रम्यता, ग्रन्थ का काव्य-सौष्टव एवं कवि की समाधि दृष्टि ने सर्वत्र अभिभूत किया है, आप्लवित किया है।

एक धर्म पारायण चक्रवर्ती सम्राट, जिसके पायदान पर शत्रु अपने कल्याण हेतु धनार्पण करते थे नर्मान्त यतदनिकेतमात्मनः शिवाय हीनाय धनानि शत्रयः जिसने छल-प्रपंच, कलह - पाखण्ड और भ्रष्टाचार को निर्मूल कर देना चाहा था, कलिकोही निःसृत कर देना चाहा था, अनादृत, आहत दर्प हो, एक चिन्तक, बुद्धिजीवी ऋषि के गले में मृत सर्प लपेटने का गर्हित कर्म करता है। राज भवन लौटने पर उस लंघित मर्याद राजा को अपराध बोध होता है, वह पश्चाताप करता है। अपने कर्म पर क्षुब्ध, वह सोचता है, जिस राष्ट्र का नृपाल ही अपने देश के चिन्तक बुद्धिजीवी का अपमान करे, उस राष्ट्र का भविष्य क्या होगा? अपना ऋद्ध कोश और बल प्रकोपित ब्रह्मकुलानल में भस्म हो जाना चाहता है ताकि आगे कोई भी गो-देव-ब्राह्माण बुद्धिजीवी और निर्दोष का अपमान न करें। अन्न-जल, सर्वस्व त्यागकर वह पुण्य पुण्य सलिला गंगा के किनारे, ऋषि पुत्र दत्त शाप से सिर पर मँडराती आसन्न मृत्यु की प्रतीक्षा में रत हो जाता है। किन्तु उन्हें मृत्यु का - अपमृत्यु का भय है। भोग, वैभव और राजमद में अब तक प्रभु चिन्तन से वह वंचित रहे हैं। ऋषियों के सानिध्य में श्री शुक जी भागवत के नाना आख्यानों से उन्हें वासना-मुक्त बनाते है, उनके विषय विदूषित आशय को पवित्र करते है- मृत्यु से निर्भय करत है- भगवत का परम कर्तव्य यही है, यों तो इसमें श्रीकृष्ण के पास्ब्रह्मत्व का अद्भुत उद्घाटन और संस्थापन हुआ है, आत्मा और परमात्मा की एकता स्पष्ट हुई है। श्रीकृष्ण ही तो परमात्मा हैं। परीक्षित राजा सामान्य मनुष्य, जिसके जन्म के साथ मृत्यु भी पैदा हो जाती है, के प्रतिनिधि है। प्रत्येक मनुष्य उनकी तरह ही, आसन्न मृत्यु से संत्रस्त है। भागवत का आख्यान उसे निर्भय बनाता है, आत्मा एवं परमात्मा की अभेदता स्पष्ट करता है, ताकि समागते। दण्डधरे कृतान्त - जीवन की संध्या वेला में उसे भी निर्भयता का बोध, वह भी कर सके:

सिद्धोऽरम्यनुगृही तोऽस्मि भवता करुणात्मना श्रावितां यच्च में साक्षादानादि निधनो हरि: ।

भगवंस्तक्षकादिम्यां मृत्युम्यां न विभेभ्यमहम् प्रविष्टो ब्रह्म निर्वाणमभयं दर्शितं मया

भगवन् आपसे करूणा पूर्वक अनादि निधनो हरि का आख्यान् सुन मैं सिद्ध और अनुगृहीत हो गया आपके दिखाये अभय निर्वाण ब्रह्म पद में प्रवेश कर गया। मुझे तक्षक और मृत्यु से कोई भय नहीं है।

अवतारवाद की अवधारणा शुद्ध और मात्र भारतीय है। भगवत का भगवान, अपनी अच्छाइयों से ऊपर उठने वाला भगवान् नहीं, यह तो समस्त ईश्वरता, एैश्वर्य और नैसगिंक वैभव युक्त अवतरित होने वाला "श्रीकृष्णस्तु” भगवान स्वयं हैं, जिनकी आकृति और चेष्टाओं को ब्रह्माजी भी स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि मानते है। स्वयं परमात्मा सामान्य माताकी गोद में खेले, पिता के साथ भोजन करे, पुत्र स्नेह स्नुतकुच युगं जातकम्पं च सूभु हो और वही परमात्मा मारे भय के माता को चौर विशंकितवेक्षण करे, हाथ में छड़ी देख रोने लगे, की कल्पना को विश्व साहित्य में पृथक स्थान देती है।

देवताओं और योगियों के ध्यान में भी सहसा नहीं आने वाले परमात्मा को गोपियाँ-ग्वालिने छछिया भरि छाछ पर नाच नचाती हैं, चन्द्रिका द्यौत शरद की निर्मल निशा में तन्मयता से उनके साथ स्वयं नाचती हैं, उन्हें विवश, निरुत्तर कर कहने को बाध्य करती है- न पारयेऽहं निरवद्य संयुजा, स्व साधुकृत्य विवृधा युषापि वा ।

प्यारी गोपियों । देवताओं की आयु पाकर भी मैं तुम लोगो द्वारा किए गये प्रेम, त्याग, और सेवाओं से उऋण नहीं हो सकता ।

उद्धव जी जैसे गुरू ज्ञान-गर्व-गंभीर आत्म ज्ञानी को भागवत कार ने प्रेमा भक्ति की अतल गहराइयों में यों खंघाला है कि उनका ज्ञान-गर्व धुल-घुल गया हैं, कुछ दिनों के लिए ब्रज में आए उद्धव के मन में आकांक्षा जगती है, लता, गुल्म, औषधि हो, वृंदावन में वह चिर निवास करें, प्रणम्य गोपियों की चरण रेणु उन पर पड़ती रहे वृन्दावने किमपि गुल्म लतौषधीनाम् उन्होने मुक्त उद्घोष किया, भगवान की लीला - कथाओं में संलिप्त, विभोर भक्तों के लिए कुलीनता, सम्भ्रन्तता सर्वथा अनपेक्षित है- किं ब्रह्म जन्मभिरनन्न कथा रसस्य ।

ब्रह्म-निर्वाण - साधना और परमात्म- सानिध्य का यह रम्य, दुर्लभ आख्यान है।

भागवत का काव्य-सौष्टव समस्त पूर्ववर्त्ती पुराणेतिहासों से अधिक ऋद्ध और वैभवपूर्ण है। महाभारत और भागवत के प्रणेता एक होने पर भी भागवत में काव्यात्मकता का उत्तरोत्तर विकास है, भाषा, भाव और वर्णना में भेद है। महाकाव्यों में उपमाओं की भरमार है, पुराणों मे इतिवृत्त और पृष्ठ पेषण की। किन्तु भागवत की शब्दयोजना, पद लालिन्य, भाव गांभीर्य और अभिव्यज्जना नितान्त अनुपमेय है। परम वंद्य गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस को नानापुराण निगमागम श्रुति सम्मत् बताया है, किन्तु, आख्यान और वर्ण्य की दृष्टि से भागवत ही मानस पर सर्वाधिक हावी है। मानस का समन्वय बाद और लोक प्रियता भागवत से सीधे आयातित है।

भागवत के अध्येता को सदा स्मरणीय है कि भागवत का सारा आख्यान, सारी लीला कथाएं व्यासदेव जी की समाधि दृष्टि और भाव लोक की उपलब्धि है। नारदजी ने उन्हें समाधिना स्मरण और वर्णन का उपदेश दिया था। भागवत की रम्यता पाठक को समाधि- स्थिति प्रदान करती। सामान्य मानवीय धरातल की खोज निराधार है।

यद् किंचित संदर्भों को मैने मात्र स्पर्श किया है या अस्पर्श किया है। इसका मात्र कारण भिन्न रुचिर्हि लोकाः के अलावे कुछ नही है। ये रूचिर संदर्भ पाठकों का अनुरंजन कर सकें, उन्हे भगवदोत्मुख बना सके, यही कामना है।

रचना में मौलिकता का दावा नहीं किया जा सकता। जाने-अनजाने जिन ग्रंथों और व्यक्तियों से प्रेरणा - प्रोत्साहन और आशीर्वाद-सहयोग मिला है, उनके पति श्रद्धावनत हॅू, विशेषतः ज्योतिर्मठ अवान्तर भानुपुरा पीठाधीश्वर जगदगुरू शंकराचार्य स्वामी दिव्यानंद तीर्थ जी तथा नेशनल कौंसिल आफ हिन्दूटेम्पुल्स यू० के० के अध्यक्ष श्री सुदर्शन कुमार भाटिया के प्रति ।