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Bhasha - Paristhithaki : Bhartiye Avum Vaishvik Paripeksha

By: A.K.Tripathi,S.K. Singh
₹ 1,256.00 ₹ 1,395.00

ISBN: 8170195108, 9788170195108
Year: 2015
Binding: Hardbound

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खंड (क) भाषा एवं विमर्श

1. भाषा पारिस्थितिकी : सैद्धांतिक पक्ष

2. भाषा : वाद-विवाद एवं संवाद

3. भाषा भूमंडलीकरण: समय एवं संदर्भ

4. नवभाषिक लोक व्यवस्था भारतीय एवं वैश्विक पृष्ठभूमि

 

खंड (ख): भारतीय भाषाएँ एवं लोकतंत्र

5. भाषा पारिस्थितिकी एवं बहुभाषिकता

6. भाषा एवं राष्ट्र पश्चिमी एवं गैर-पश्चिमी अवस्थाएँ

7. भारतीय लोकतंत्र एवं बहुभाषिक लोकवृत्ति

8. पूर्वोत्तर भारतीय भाषा पारिस्थितिकी

 

 खंड (ग)  : हिंदी का भविष्य एवं भविष्य की हिंदी

9. हिंदी विविध रूप

10. हिंदी : बाजार एवं राजनीति

11. हिंदी दशा एवं दिशा

 

 

भारत में भाषाई कथ्य कोई नई बात नहीं है और न ही इसका कथानक नया है, यदि इन सब में कुछ नया है, तो वह है- इसे देखने की दृष्टि। यहाँ यह कहना भी गलत नहीं होगा कि प्रायः 'दृष्टि' की समय के साथ अपनी प्रतिबद्धता रही है। भाषा के संदर्भ में तो 'दृष्टि' सत्ताई खिड़कियों से ही झाँकती रही है और अलग से यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि सत्ता द्वारा प्रायोजित दृष्टि ही दृश्य-पटल पर प्रमुखता से मुखरित होती है। विश्व इतिहास में संस्कृत, फारसी, ग्रीक, लैटिन, फ्रेंच एवं अंग्रेजी के उभार के पीछे सत्ता एवं इनकी स्थापना के पीछे इस दृष्टि की प्रभावी भूमिका रही है। आज हिंदी के उभार में सत्ता का वह पारंपरिक रूप नहीं, लेकिन बाजार जो आज स्वयं एक सत्ता है, का संरक्षण ही इसके लिए अनेक संभावनाओं के द्वार खोलता है। भाषावैज्ञानिक चिंतन में भी इस दृष्टि का योगदान कम नहीं है, सस्यूर का उभार एवं समय तथा चामस्की के उभार एवं समय के मध्य इनके देश स्विस एवं अमेरिका तथा भाषाएँ क्रमश: फ्रेंच एवं अंग्रेजी के उभार एवं स्वीकार्यता की परिस्थितियाँ इसका प्रमाण हैं। इस क्रम में अर्थ-व्यवस्था की स्थिति, मुद्रा का मूल्य, विश्व राजनीति की दिशा एवं इसके नियामक संस्थाओं का हस्तक्षेप की मूल प्रवृत्तियाँ यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि बहुत कुछ उस सत्ता द्वारा ही संचालित होता है, जिससे यह दृष्टि बनती है, तब इन सब में भाषा की संलिप्तता को स्वीकार न किया जाना, वास्तविकता से मुँह मोड़ना होगा। ऐसे में भाषा और भारत के इन सब प्रसंगों को इसमें शामिल किया जाना और उस पर बहस का होना आज की आवश्यकता है।

इस बीच वर्तमान समय ने भी जो संकेत दिए हैं, उसको नए सिरे से समझने की आवश्यकता है, क्योंकि इक्कीसवीं सदी अपने आप में अनेक बदलावों के साथ प्रस्तुत है। हालांकि हर समय अपने साथ आंशिक बदलाव लेकर ही आता है, लेकिन विगत सदियों से इतर इक्कीसवीं सदी कई मामलों में अन्य सदियों से अलग है, क्योंकि यह पहली बार है कि कोई एक भाषा 'अँग्रेजी' न सिर्फ अपनी सीमा में, बल्कि बाहर भी इतनी लोकप्रिय हुई है। भाषाई स्था समाजभाषावैज्ञानिक पूंजी बनी है, किसी भाषा के मातृभाषी जनसंख्या से अधिक उसके द्वितीय भाषी हैं, युवाओं की एक ऐसी बहुभाषिक पीढ़ी तैयार हो रही है, जो वैश्विक अभिव्यक्ति में दक्ष है, किसी द्वितीय भाषा को सीखने के लिए लोगों में इतनी जिज्ञासा है, किसी भाषा को दूसरे राजनीतिक, आर्थिक एवं प्रशासनिक परिक्षेत्र में पलने-बढ़ने का इतना 

अवसर मिला है, इतिहास के किसी दौर के किसी भाषा के साथ के सुरे अनुभवों को जल्दी भुला दिया गया है, कोई भाषा वैश्विक स्तर पर तकनीकी, शैक्षिक, राजनीतिक पर्व जनसंपर्क के लिए अपरिहार्य हुई है और इन सब के साथ यह भी पहली ही बार है कि चीन और भारत के रूप में कोई गैर-पश्चिमी शक्ति वैश्विक शक्ति बनकर उभरी है। आज भारत में अंग्रेजी भाषियों के वृद्धि की दर से इंग्लैंड को भी चिंतित होना चाहिए, क्योंकि यहाँ के लोग भारतीय अंग्रेजी बोलेंगे क्वीन इंग्लिश' तो कतई नहीं।

भाषाविज्ञान हमेशा से एक अंतरानुशासनिक अध्ययन-क्षेत्र रहा है, समय के साथ अनुशासनिकता के इस दायरे का पर्याप्त विस्तार भी हो रहा है। इस विस्तार का सबसे बड़ा कारण समसामयिक चिंतन-धारा की अंतरानुशासनिकता के दबाव के साथ शोध एवं अध्ययन क्षेत्र के प्रति जिज्ञासा, कौतूहल एवं बढ़ते अकादमिक रुझान है। मानव जीवन की सामान्य जीवनचर्या की आवश्यकताएं जैसे हवा, पानी, भोजन और मकान आदि की तरह ही मानव को सामान्य जीवन के लिए भाषा की आवश्यकता होती है। इस प्रकार जब हम हवा और पानी के विज्ञान का अध्ययन करेंगें, तो उसमें एक बिंदु आता है, जहाँ उसकी उपयोगिता और प्रयोगकर्ता तक जाना पड़ता है और इस प्रकार मनुष्य एवं उसकी जीवन-चर्या बहस के केंद्र में आती है। इसी क्रम में भाषा के विज्ञान का विस्तार मनुष्य तक पहुँचता है, तब उसके उच्चारण, शब्द प्रयोग और व्याकरण पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया जाता है, जिसका समाधान कभी समाज से मिलता है, तो कभी पर्यावरण एवं परिवेश से। इस प्रकार जिस अनुशासन का रूप अस्तित्व में आया, वह 'पर्यावरण भाषाविज्ञान' (Ecolinguistics) कहलाया। सामान्यत: इसी के लिए अन्य पद 'भाषा पारिस्थिति से सीधे जुड़ जाते हैं।

भाषा पारिस्थितिकी आज के समय की आवश्यकता है, क्योंकि जिस तरह से जैविक विविधता सीमित होती जा रही है, उसमें व्यक्ति की पसंद-नापसंद भी सीमित होती जा रही है, विकल्प का अभाव है, ऐसे में व्यक्ति की मूलभूत स्वतंत्रता एवं अधिकार आज खतरे में है। यह भी देखना महत्त्वपूर्ण है कि विश्व-शक्ति के केंद्र अमेरिका के भौतिक विकास पर वहाँ की घटती जैविक विविधता अट्टहास कर रही है, क्योंकि आज से लगभग 80 वर्ष पहले वहाँ 75 प्रकार से अधिक स्थानीय सब्जियाँ उपलब्ध थीं, जिनमें से 97 प्रतिशत आज बाजार में उपलब्ध नहीं हैं। इसी तरह सन् 1804 एवं 1904 के मध्य वहाँ 7098 प्रकार की सेब की किश्में थीं, जिनमें से आज 86.28 प्रतिशत समाप्त हो चुकी हैं। आज का यह विकसित अमेरिकी समाज, जो सिर्फ सौ साल पहले सात हजार से अधिक तरह का सेब खा पाता था, उसे अब एक हजार से कम की प्रजातियों से ही काम चलाना पड़ रहा है। इन सबसे खतरनाक है, अनवरत भाषाओं का समाप्त होना। आज विश्व की 28 प्रतिशत भाषाओं के बोलने वालों की संख्या एक हजार से भी कम है। अभी कुछ साल पहले भारत में 'बो' की अंतिम बोलने वाली महिला 'बोआ' के निधन के साथ ही एक भाषा, एक धरोहर एवं एक जीवन-पद्धति का अंत हो गया। मातृभाषाएँ आज के विश्व-संपर्क की भाषाओं की तरह महज संवाद का माध्यम नहीं होती हैं, बल्कि एक समग्र जीवन प्रक्रिया की संवाहिका होती हैं। इन भाषाओं का संबंध सीधे अपने परिवेश से होता है। छोटी-छोटी भाषाओं में भी स्थानीय जड़ी-बूटियों के नाम होते हैं, भाव एवं प्रसंगों की स्थानीय अभिव्यक्ति लिए शब्द होते हैं, इसलिए इन भाषाओं का समाप्त होना, सिर्फ कुछ ध्वनियों का अंत नहीं, बल्कि पूरी जीवन प्रक्रिया का अंत है, स्वतंत्रता का अंत है, स्थानीय जातीय प्रतिरोध का अंत है एवं जीवन की इच्छा का अंत है। 

ऐसी ही कुछ चिंताओं को संबोधित करने एवं इनके प्रति जागरूकता के लिए भाषा- पारिस्थितिकी आज की आवश्यकता है और इसी भाव ने इस कृति के अस्तित्व में आने की योजना की पृष्ठभूमि का निर्माण किया और आज 'भाषा पारिस्थितिकी भारतीय एवं वैश्विक 8 परिप्रेक्ष्य' शीर्षक पुस्तक आपके हाथ में है। इसमें तीन खंड हैं- पहले खंड 'भाषा एवं विमर्श में यह प्रयास किया गया है कि भाषाविज्ञान के सैद्धांतिक विकास-क्रम के माध्यम से भाषा- पारिस्थितिकी और इससे जुड़े पक्षों को सामने लाया जाए, इसके बाद द्वितीय खंड भारतीय भाषाएँ एवं लोकतंत्र में इन सैद्धांतिक मानकों के अनुरूप भारत के संदर्भ का अवलोकन किया किया गया है, तदुपरांत अंतिम खंड हिंदी का भविष्य एवं भविष्य की हिंदी' में हिंदी केंद्रित बहसों को नया धरातल दिए जाने का प्रयास किया गया है। यद्यपि इस क्रम में कई प्रसंगों में मान्य बहसों के पक्ष एवं प्रतिपक्ष दोनों की भी उपस्थिति है, जिसका मूल कारण इस कृति को एकांगी न होने देने की मंशा तो थी ही साथ ही लेखकीय स्थापना को पुष्ट करने से अधिक पाठकीय विवेक के खुलेपन को आमंत्रण है। इस कृति की भूमिका भाषाविज्ञान के 

चिर-परिचित व्यक्तित्व प्रो. इम्तियाज़ हसनैन द्वारा लिखे जाने की सहमति से इस पुस्तक को पूर्णता मिलती है, हम इसके लिए प्रो. हसनैन जी के आभारी है। पुस्तक के प्रकाशक श्री प्रदीप जैन द्वारा इसके प्रकाशन की जिम्मेदारी लेना एवं समय पर प्रकाशित कर देना, इस कृति की उपलब्धता का निर्णायक चरण है। इसलिए हम इनके भी आभारी हैं। इस क्रम में पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग के शोधार्थियों- अरविंद मोहित, आलोक, दीपक एवं अप्पा साहेब के सहयोगों की अवहेलना नहीं की जा सकती, क्योंकि इन्होंने वर्तनी शोधन की प्रक्रिया को बहुआयामिता दी, अतः इनका भी आभार!

अपेक्षा की जाती है कि यह पुस्तक हिंदी में भाषाविज्ञान के लेखन के पारंपरिक दायरे को तोड़ते हुए एवं भाषाविज्ञान की पाठकीयता की अनुशासनिक सीमा का विस्तार करते हुए भाषा के आम पाठकों, शोधार्थियों, शिक्षकों एवं विद्यार्थियों में भाषा पारिस्थितिकी की समझ बनाएगी, साथ ही उन चिंताओं के प्रति सजग भी करेगी, जो एकरूपता अपने साथ लेकर आती है। अंत में इस पुस्तक को आप सुधीजनों के समक्ष बड़ी ही विनम्रता के साथ प्रस्तुत करते हुए...

शैलेन्द्र कुमार सिंह

अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी