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Bhasha Avum Digital Loktantr (Hindi)

By: A.K.Tripathi
₹ 1,796.00 ₹ 1,995.00

ISBN: 9788170196464
Year: 2019
Binding: Hardbound
Language: Hindi

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भाषा, भारत एवं डिजिटलीकरण

1. भाषा की सामयिकता

2. मानव-मशीन अंतरापृष्ठ

3. डिजिटल इंडिया' एवं भारतीय संदर्भ

4. डिजिटल मीडिया के सच एवं सरोकार

5. संवाद में संकुचन

6. सोशल नेटवर्किंग साईटें एवं लोकतंत्र

7. सोशल मीडिया एवं अफवाह का तंत्र

8. हिंदी अस्मिता का प्रश्न एवं नव तकनीकी समाज

9. मातृभाषाओं का संकट, संरक्षण एवं तकनीक

10. तकनीकी हिंसा

11. तकनीक का साम्राज्य

12. विज्ञान का पाठ, पाठकीयता एवं इंटरनेट

13. गाँधी का भारत और भाषाएँ

14. भाषा का लोकतंत्र एवं लोकतंत्र की भाषा

15. चुनाव प्रचार एवं भाषाई मर्यादा

16. भाषिक प्रतीकों में समाज

17. हिंदी की राजनीति एवं राजनीति की हिंदी

18. भारतीय राष्ट्रवाद और भाषाएँ

19. भाषाओं से खेलती सत्ताएँ

20. अनुवाद एवं गीतांजलि

21. जन-माध्यम एवं जनतंत्र की चिंताएँ

22. भाषा और न्यायपालिका

23. भाषा संरक्षण एवं देवनागरी लिपि

24. अल्पसंख्यक भाषाएँ एवं राष्ट्रीय भाषा और शिक्षा नीति

25. भविष्य की भाषा

26. अल्पसंख्यक भाषाओं का भविष्य

 

 

13. गाँधी का भारत और भाषाएँ

 

लेखकीय

समाज की अपनी गतिकी होती है, जिसमें चरणगत परिवर्तन होता रहता है। पाषाण युग से लेकर वर्तमान 'सीमेंट युग' के मध्य मानव ने सभ्यता के अनेक सोपानों को पार किया है। इस लंबे अंतराल में मनुष्य के जीवन के सक्रियता की गति बढ़ी है, क्योंकि जीवन-यापन की प्रक्रिया में जो कभी प्रकृति का केंद्रीय महत्त्व था, वह अब लगातार कम हो रहा है। बल्कि हम एक वैकल्पिक प्रकृति गढ़ने की कोशिश में लगातार अग्रसर हैं। अब मानव का जीवन स्वाभाविक नहीं रहा है, बल्कि उसमें चतुर्दिक कृत्रिमता बढ़ रही है। एक व्यक्ति के पैदा होने की शल्य-क्रिया से लेकर अंतिम संस्कार अर्थात् मृत्यु के बाद इलेक्ट्रिक मशीन पर लाश जलाने तक की प्रक्रिया में वह प्रकृति को लगातार चुनौती दे रहा है। बल्ब का आविष्कार सूर्य को चुनौती थी, तो पंखे का होना पेड़ और बगीचों को मुँह चिढ़ाता है। एयर कंडीशनर और कमरा गर्म रखने के विभिन्न इलेक्ट्रिक साधन मौसम चक्र को नीचा दिखाते हैं, तो जल को पाने के लिए एक आम आदमी को आज नदी या तालाब को छोड़कर कितने दूसरे माध्यमों से होकर गुजरना पड़ता है। साँस लेने के लिए आवश्यक आक्सीजन भी आज मशीन से साफ होने लगा है। सुई से लेकर हवाई जहाज तक हम मशीनों और इसके प्रभावों से घिरे हुए हैं। यद्यपि 'परिवर्तन प्रकृति का नियम होता है' और एक जीवंत समाज के लिए परिवर्तन का होना आवश्यक भी होता है। वैसे भी समय की एक अपनी चाल होती है और जो उसमें पीछे छूट जाता है, उसे आज के समाज में पिछड़ा घोषित कर दिया जाता है। हम इसी समय का पीछा करते-करते, आज कहाँ आ पहुँचे हैं, यह जानते हुए भी कि हम कितना भी 'विकास' क्यों न कर लें, जीवन के लिए हवा, पानी एवं अनाज को प्रकृति से परे पैदा नहीं कर सकते हैं। मशीन गेहूँ से रोटी, ब्रेड या बिस्कुट बना सकती, लेकिन गेहूँ नहीं। इसी विकास का एक चरण डिजिटलीकरण भी है। कभी कबूतर से सीमित संदेश भेजने वाला समाज, आज अपरिमित वीडियो कॉल करता है। दूरी एवं समय अब छोटे होते जा रहे हैं। परिवार नामक संस्था में व्यक्ति से अधिक अब मशीन का प्रभाव बढ़ रहा है। इस तरह सूचना-तकनीक ने समाज को अंदर से प्रभावित किया है, या यूँ कहें कि अपने आगोश में कैद किया है। अकेले मोबाईल के उभार ने जीवन के ढाँचे को बदल दिया है। व्यक्ति की अपनी दुनिया का मोबाईल की दुनिया में विलीन हो जाना, अब सामान्य परिघटना बनती जा रही है। घर, विद्यालय, यात्रा, एकांत, सामूहिकता आदि सब में मोबाईल का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है। ऐसे में यह हो ही नहीं सकता कि इन सबका प्रभाव समाज और उसकी सहूलियत की प्राथमिक साधन ‘भाषा’ पर न पड़े। क्योंकि एक व्यक्ति की दुनिया का मोबाईल की दुनिया में चले जाने के बीच एक तीसरी दुनिया भी है, जो मोबाईल और व्यक्ति की दुनिया की मध्यस्थता करती है और यह दुनिया बहुत ही चालाक एवं क्रूर है। प्रथम दृष्टया यह आसानी से दिख जाता है कि एक आम आदमी घर, परिवार, रेल एवं बस आदि हर जगह अपनी मोबाईल से खेलता रहता है, लेकिन इसके पीछे की सच्चाई यह है कि दरअसल यह जो तीसरी दुनिया के लोग हैं, वे वास्तव में मोबाईल हाथ में लिए उस व्यक्ति से खेल रहे होते हैं। इस प्रकार तीसरी दुनिया जो प्रायः सामने नहीं दीखती, वह हम सबसे खेल रही है। बहरहाल, ऐसा भी नहीं है कि हम इस तीसरी दुनिया से नहीं खेलते हैं। खेलते तो हम भी हैं, लेकिन अंतर यह है कि हम जिस खेल को खेलते हैं, उसके नियम हम नहीं, बल्कि तीसरी दुनिया ही बनाती है। वे लोग हमको अपने खेल में उलझाकर सीधे व्यक्ति की भावनाओं और अभिरुचियों से खेलते हैं। इस प्रकार उनके सामने हम बहुत छोटे खिलाड़ी हैं, 

एक चरण

आज

परिवार

क्योंकि जब हम उनके द्वारा बनाए खेल खेलते हैं, तो वे सीधे हमारी पूँजी, समय और सपनों से खेल रहे होते हैं।

अपने बदल नाना, अब जब इतने खेल चल रहे हैं, तो जाहिर है कि समाज, जीवन, भाषा, पारिस्थतिकी आदि में भी बहुत कुछ बदल रहा होगा। इसी खेल और खिलाड़ी को समझने के प्रयास के उपक्रम के फलस्वरूप यह कृति 'भाषा एवं डिजिटल 'लोकतंत्र' आपके हाथ में है। यह वास्तव में समय-समय पर लिखे लेखों का संग्रह है, जिनके अधिकांश अंश लोक एवं लोकतंत्र को समझने एवं समझाने के लिए अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छपे भी हैं। सबको एक साथ परोसकर लोकतंत्र तक पहुँचाने के मोह से अपने को विरत नहीं कर पाया, इसलिए इनको पुस्तकाकार स्वरूप दिया गया। इस प्रक्रिया में मेरी उपस्थिति भी व्यक्तिगत नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक ही है, अर्थात् बिना समाज और इसके सहयोग से यह संभव नहीं हो पाता। इस क्रम में सबसे अधिक योगदान उन पाठकों का है, जो विभिन्न डिजिटल माध्यमों से ही समय-समय पर हमको प्रेरित करते रहे हैं। इन सबको मंच देने में भाषा-प्रेमी, साहित्यकार एवं जनसत्ता के संपादकीय विभाग के प्रमुख डॉ. सूर्यनाथ सिंह जी का विशेष आभार, जो लिखने के लिए एक नैतिक दबाव हमेशा बनाए रहते हैं। इस क्रम में देश के मूर्धन्य भाषाविद प्रो. उदयनारायण सिंह, प्रो. वृषभ प्रसाद जैन एवं प्रो. शैलेंद्र कुमार सिंह के प्रति मेरी कृतज्ञता बनती है, जिन लोगों न सिर्फ अकादमिक, बल्कि पारिवारिक स्नेह भी दिया है। इसी क्रम में विश्वभारती, शांतिनिकेतन, स्थित 'संकटग्रस्त भाषा केंद्र' के प्रमुख प्रो. कैलाश पट्टनायक को आभार, जिन्होंने यहाँ काम करते हुए लगातार वह अकादमिक परिवेश उपलब्ध कराया, जिसमें लिखने-पढ़ने  का क्रम विखंडित नहीं हुआ। आगे केंद्र में मेरे सहकर्मीगण बिदिशा भट्टाचार्या, दुर्गाशंकर दास, सुब्रा मुखर्जी, राजदीप घोष एवं 

सुहृद रॉय चौधरी के आभार के बिना यह काम पूरा नहीं होगा, इन स मिलाकर ही यहाँ एक 'परिवार' कहा जाता है। यहाँ अनेक शिक्षक, वरीष्ठ मित्र भी हैं, जो शिक्षक, अकादमिक सहचर, प्रेरक एवं आलोचक की भूमि निभाते रहे हैं, जिनके सहयोग से लेखन का कर्म आसान हो जाता है। इस लिए सबके प्रति आभार!

यहाँ पापा, फूफा एवं मेरे जीवन की सह-पथिक मोहिनी के व्यक्त विश्वास एवं सहयोग के बिना यह काम संभव नहीं हो पाता, इसमें मोहिनी ने तो अपनी अकादमिक पृष्ठभूमि के कारण एक विज्ञान विषयक पाठ में सीधे हस्तक्षेप भी किया है। यहाँ एक नाम बेटी ‘बौद्धिका' का छूट रहा है, जिसने प्रत्यक्ष रूप से तो लिखने से रोकने के लिए हर वह काम किया है, जो अपनी उम्र में वह कर सकती थी, लेकिन प्रकारांतर से ऊर्जस्वित भी करती रही है। यहाँ पुस्तक के प्रकाशक श्री संदीप जैन द्वारा इसके प्रकाशन की जिम्मेदारी लेना एवं समय पर प्रकाशित कर देना, इस कृति की उपलब्धता का निर्णायक चरण है। इसलिए हम इनके भी आभारी हैं।

अपेक्षा की जाती है भाषाविज्ञान की पाठकीयता की अनुशासनिक सीमा का विस्तार करते हुए यह कृति भाषा के आम पाठकों, शोधार्थियों, शिक्षकों एवं विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं को संबोधित करेगी। अंत में इस पुस्तक को आप सुधीजनों के समक्ष बड़ी ही विनम्रता के साथ प्रस्तुत करते हुए..

शांतिनिकेतन